Wednesday, May 8, 2013

शहर के हर हिस्से में ....
बिखरे हैं ...ख्वाब ...!
सब बेखबर ...
एक रात ....
उनको जमा कर लिया ...
भट्टी में जलाया ...
जिस से उसपर जमा पुराना मैल छूट जाए ...
उस पर कढ़े अक्स
फिर से उभर आयी ....
फिर से उन ख़्वाबों को राह देने निकल पड़ी ....
ख्वाब ले लो ख्वाब ...
सुबह होते ही चौक में जाकर लगाती हु आवाज़ ...
ख्वाब असली हैं के नकली ...?
यों पूछते हैं जैसे उनसे बढ़कर ...
खरीदार कोई ना हो ...!

शाम हो जाती है ..
फिर से लगाती हु आवाज़
मुफ्त ले लो मुफ्त ..
ये सोने के ख्वाब
मुफ्त सुनकर डर जाते हैं लोग
चुपके से सिरक जाते हैं
देखना ये मुफ्त कहती है
कोई धोखा ना हो ...!

ऐसा न हो कहीं ...
घर पहुँच कर
टूट जाये
पिघल जाए
या फिर
उड़ जाएँ
शायद नहीं कुछ काम के
ये ख्वाब ....!

रात हो जाती है
ख़्वाबों की पोटली पर
सरिया रखकर
लौटती हु
रात भर बुदबुदाती हु
ये ले लो ख्वाब
और ले लो मुझसे उनके दाम भी
ख्वाब ले लो
ख्वाब ....!

1 comment:

  1. वाह क्या गजब का लिखा है, और एक भी कमेन्ट नहीं....
    लेकिन एक बात कहूँ, ख्वाब बिकते थोड़े न हैं बस कोई आकर इन्हें बाँट भर सकता है....

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