बहुत छोटी थी ..याद नहीं कुछ ...
कैसे आयी ...किसने लाया ....?
धुंधली सी यादें हैं ..बचपन की
माँ की ...बाबा की ...छुटकी की ..
हमारी गरीबी की ....
यहाँ आयी ..
नाम मिला ..
वैश्या ...!
शरीर रात में चोट खाता ..
आत्मा दिन में घयाल होती ...
किसी की आँखें तार तार कर जाती ..किसी की बोली ...!
चटखती धुप में भी ...आँख फाड़कर तंज़ कस जाते ...
रात की शीतलता में आँखें बंद हो जाती उनकी ...
सिर्फ मेरा शरीर दिखता ..
मुर्दे की तरह रोज़ रात में कब्र से निकलती ...
चम्गादर मुझे नोचते ...
पहली किरण के साथ वापस कब्र में लौट आती ..
उजाला नसीब में कहाँ ...
जिस्म का व्यापार करती हु ..
तुम सफ़ेद कालर ..मेरे खरीदार हो ..
बस एक बात सुनो ..
मैं जो भी हु अपने लिए हु ...
तुम्हारे लिए नहीं ....!
हाँ मैं वैश्या हु ....
No comments:
Post a Comment